मोहन के मन में बहुत दिनों से एक सपना पल रहा था। जब भी वह अपने बापू करमचंद को राजदरबार में जाने के पहले अनिच्छा से विलायती मौजे और जूते पहनते देखता तो उसे मन ही मन बहुत गुस्सा आता था। वह सोचता था कि अंग्रेज़ हमें अपमानित कर विलायती कपड़े जूते पहनने को मज़बूर करते हैं। हमें इसका विरोध करना चाहिए। कैसे? यह उसे नहीं सूझता था। अभी उसकी उम्र ही क्या थी, यही 12-13 वर्ष। इतना छोटा बच्चा कर भी क्या सकता था?
मोहन जब स्कूल जाता तो अकसर उसके सहपाठी एक गुज़राती कविता गाते थे, जिसका भावार्थ कुछ इस तरह से था, अंग्रेज़ हम पर राज्य करते हैं, हिंदुस्तानी दबे रहते हैं। दोनों के शरीर तो देखो। अंग्रेज़ हैं पूरे पाँच हाथ के। एक एक अंग्रेज़ पाँच सौ हिंदुस्तानियों के लिए काफी है। यह कविता उसके मन को और आंदोलित कर देती थी। वह सोचता था कि मैं भी पाँच सौ के बराबर बनूँगा। एक दिन उसने अपने दिल की बात अपने मित्र मेंहताब को बताई तो उसने भी अपनी समझ के अनुरूप उपाय उसे सुझा दिया कि मोहन, सारे अंग्रेज़ माँस खाते हैं, इसलिए ताकतवर हैं। यदि तुम भी ऐसा करोगे तो ताकतवर हो जाओगे और अंग्रेज़ों को देश के बाहर भगा सकोगे।
रात भर मोहन अपने बिस्तर पर पड़ा करवटें बदलता रहा। वह सोच रहा था कि मेहताब सही तो कहता है। वह भी कितना ताकतवर है। वह मेरी तरह भूत-प्रेत, चोर और अंधेरे से भी नहीं डरता। इसके बाद शाम को मोहन घर से गायब रहने लगा। वह रोज़ अपने साथियों के साथ किसी गुप्त जगह पर छुप कर माँसाहार करता। पूरे एक वर्ष वह ऐसा करता रहा। इस बीच माँ उससे पूछती कि आजकल शाम को वह कम क्यों खाता है? तो वह बात को घुमा जाता या कभी कभी झूठे बहाने भी बना देता।
हलांकि यह बात मन ही मन उसे परेशान भी करती थी। कि वह अपनी माँ को झूठ बोल रहा है। एक दिन उसने फैसला किया कि झूठ बोलना अच्छी बात नहीं है और न ही माँसाहार। उसने तत्काल निर्णय किया कि अब वह माँसाहार नहीं करेगा। उसे अब समझ आ चुका था कि माँसाहार से ताकत बढ़ने वाली बात बचकानी है। उन्हीं दिनों मोहन का बड़ा भाई कर्ज़ में डूब गया। जब यह बात मोहन को पता चली तो दोनों ने मिलकर हाथ में पहने हुए कड़े में से थोड़ा-सा सोना काटकर कर्ज़ चुका दिया। लेकिन उनका दुर्भाग्य था कि शाम को ही माता-पिता की नज़रें कड़े पर पड़ गई। उन्होने जानना चाहा कि सोना कहाँ गया तो दोनों भाइयों ने झूठ बोल दिया कि कहीं टूटकर गिर गया होगा। लेकिन यह भी एक तरह की चोरी थी। एक के बाद एक झूठ, माँसाहार, चोरी इन सबसे मोहन के दिल का बोझ और बढ़ता चला जा रहा था। उसका मन अपराधबोध से ग्रसित हो गया। जब यह सब असहनीय हो गया तो एक दिन उसने अपने अपराध स्वीकार करते हुए दिल की सारी बातें एक चिट्ठी मे लिखकर पिता को दे दी। पिता ने शांतिपूर्वक वह चट्ठी पढ़ी और फाड़ दी। वे बिना कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किए अपने बिस्तर पर लेट गए। थोड़ी ही देर बाद उनकी ऑंखों से ऑंसू बह निकले। पिता की इस अंहिंसक प्रतिक्रिया ने मोहन को हिला दिया। वह रो पड़ा। पिता उसे समझा भी देते तो उसको इतनी चोट नहीं पहुंचती, जितनी उनके ऑंसुओं से पहुँची थी। उसे आत्मग्लानि हो रही थी कि उसने अपने पिता के दिल को चोट पहुँचाकर एक तरह से हिंसा की है। इस तरह वह अनजाने में ही एक और अपराध कर बैठा। पिता के इन्हीं ऑंसुओं ने मोहन का जीवन बदल दिया।
यहीं से मोहन को वह पाठ सीखने को मिला, जो कि बाद में उसकी पहचान बन गया। यानी अहिंसा का पाठ, जो कि हिंसा की अपेक्षा अधिक असरदार होता है। इसी अहिंसा के सिध्दांत पर चलकर मोहन ने बचपन से अपने मन में पल रहे सपने को साकार कर दिखाया। अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालनें के लिए चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन में न केवल उसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई बल्कि वर्तमान दुनियाँ को एक बार फिर भारत के प्राचीन सिध्दांत 'अहिंसा परमोधर्मः' की शक्ति से भी अवगत कराया। इसी के बल पर ही वह मोहन से महात्मा बना।
आप समझ ही गए होंगे हम राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी की बात कर रहे हैं। बापू के जीवन का ये प्रसंग बहुत ही शिक्षाप्रद है। गलती किससे नहीं होती। हम सभी इंसान हैं और एक इंसान गलती करके ही सीखता है। ज़रूरी यह है कि हम अपनी गलतियों से सीखें। बापू ने भी गलतियाँ की, लेकिन उन्हें दोहराया नहीं। उन्होने जीवन में घटने वाली घटनाओं से बहुत कुछ सीखा। सीखने के इसी गुण ने उन्हें 'बापू' बनाया। उन्होने सिखाया कि किस तरह एक साधारण बच्चा भी असाधारण व्यक्ति बन सकता है। इसलिए यदि हम भी अपने जीवन में कुछ बनना चाहते हैं तो अपनी गलतियों से उसी तरह सीखना होगा जिस तरह गाँधी जी सीखते थे।
दूसरी ओर हमें यह भी सीखने को मिला कि किसी भी प्रकार की शारीरिक और मानसिक चोट हिंसा की श्रेणी में ही आती है। इसलिये हमें कोशिश करनी चाहिए कि हमारे किसी भी कृत्य से परिजनों मित्रों, सहयोगियों या सहपाठियों को जाने-अनजाने में भी दुःख न पहुँचे।
0 Comments
Pathan has a Pass विनय से बढ़कर कुछ नहीं |