सन्तों के वचन हैं-- पिता स्यों माता सौ गुणा सुत स्यों राखत प्यार।

                  माता स्यों हरि सौ गुणा हरि स्यों गुरु सौ बार॥

वर्णन करते हैं कि जितना स्नेह और प्यार एक पिता का अपने पुत्र से होता है उससे सौ गुणा अधिक ममता माता को अपने पुत्र से होती है। जितनी ममता माता कोअपने पुत्र से होती है उससे सौ गुणा अधिक प्यार ईश्वर को अपनी जीव सृष्टि से,भगवान को अपने भक्त से होता है।जितना प्यार ईश्वर को संसार के जीवों से होता है उससे सौ गुणा अधिक प्रेम सतगुरु को अपने शिष्यों से,सेवकों से होता है। वो कैसे इसे समझें।

पिता का अपने पुत्र से स्नेह होना स्वाभाविक है क्योंकि वह उसका अपना अंश है। पुत्र के पालन पोषण के लिये दिन रात दौड़ धूप करके परिश्रम करके धन कमाकर उसके खाने पीने की व्यवस्था करता है। पुत्र को सदा सुखी रखने का हर सम्भव प्रयत्न करता है।उसे कुसंगति से बचाकर रखता है।उसमें शुभ संस्कार डालता है। पुत्र अगर मेले में कहीं गुम हो जाये या मित्रों के साथ गया हुआ शाम को घर वापिस न आये या किसीअसामाजिक तत्वों के हाथ पड़ जाये तो कितना चिन्तित बेचैन और परेशान हो जाता है क्योंकि उससे हार्दिक स्नेह है उसकी सारी सम्पत्ति का वारिस है।अपने सारे जीवन की की हुई कमाई अपने पुत्र को सौंपकर प्रसन्नता अनुभव करता है। लेकिन माता की ममता इससे सौ गुणा अधिक होती है।वह सौ गुणाअधिक इसलिये कहा गया है कि बच्चे के जन्म से पहले से ही माता के हृदय में ममता हिलोरें लेने लगती हैं। बच्चे का मुख देखने को लालायित रहती है। अपने अंश से उसे सींचती है कष्ट उठाकर उसे जन्म देती है। उसके सभी सुखों का केन्द्र उसका पुत्र हो जाता है। हर पल हर क्षण उस की सुरति अपने बच्चे में ही रहती है।बाहर बादल गरज रहे हों पानी बरस रहा हो माँ सो रही हो उसे बिल्कुल पता नहीं चलता नींद नहीं खुलती लेकिन बच्चा ज़रा सा कुनमुन कर दे तो उसकी नींद खुल जाती है।आप गीली जगह पर सो लेती है बच्चे को सूखी जगह पर लिटाती है।बच्चे के ज़रा से रोने पर घर के सारे काम काज छोड़ कर उसे गोद में उठा लेगी चाहे बच्चा मिट्टी से कितना ही लथपथ हो मैला कुचैला हो उसे गोद में उठा लेगी उसे ज़रा  हिचकचाहट या गुरेज नहींहोता।पिता की गोद में देने के लिये उसे नहलायेगी धुलायेगी साफ सुथरा करेगी। पिता बच्चे को गोद में लेना चाहता है लेकिन तब,जब वह साफ सुथरा हो। जब तक माँ उसे साफ न करदे। लेकिन माँ ऐसा नहीं कर सकती।पुत्र अगर पिता की आज्ञा नहीं मानता उसके विचारों के अनुसार नहीं चलता या कुसंगति में पड़ गया हो तो वह पुत्र को त्याग भी सकता है पुत्र पिता के स्नेह से वंचित भी हो सकता है। पिता अपने स्नेह और सम्पत्ति से वंचित भी कर सकता है लेकिन माता का हृदय ऐसा नहीं कर सकता। पुत्र चाहे बुध्दिहीन हो, विक्षिप्त हो या कहीं कुसंगति में भी पड़ जाये तो भी मां की ममता में कुछ भी फर्क नहीं पड़ता।वह पुत्र को  सही रास्ते पे लाने का हर सम्भव प्रयत्न करती है। माता की ममता अपने पुत्र से कितनी होती है उसके लिये प्राचीन समय की एक घटना का वर्णन मिलता है।

      एक परिवार में केवल दो प्राणी थे माँ और बेटा। बेटे का बाप मरने से पहले काफी धन छोड़ गया था।बेटा माँ के लाड़ प्यार और अधिक धन के मिल जाने के कारण कुसंगति में पड़कर धन का अपव्यय करने लगा। कुसंगति में पड़ जाने के कारण वह एक वेश्या के प्रेम जाल में फँस गया। मां के समझाने बुझाने पर भी वह सही रास्ते पर न आया।माँ उसे समझाती बुझाती कुमार्ग पर जाने से रोकती तो कुछ समय तक तो माँ के स्नेहवश उसके कहने पर रुक जाता लेकिन फिर भी कुमार्ग पर उसका मन उसे ले ही जाता।एक दिन वेश्या ने देखा कि इसका सब धन तो खत्म हो चुका है अब उससे छुटकारा पाने के लिये उसने उससे कहा कि अब तुम्हारा मुझसे प्रेम पहले जैसा नहीं रहा तभी तो कई कई दिनों बाद आते हो। तुम्हारा प्रेम झूठा है।तुमअगर मुझसे वास्तव में प्रेम करते हो तो मुझे अपनी माँ का कलेजा लाकर दो तब मैं मानूँगी कि मुझसे तुम्हें वास्तव में प्रेम है। वह उसके प्रेम के जाल में इतना फँस चुका था कि उसे सत्य असत्य का,अच्छे बुरे का विवेक नहीं रहा था उसने कहा कि मुझे तुमसे हार्दिक प्रेम है मैं इसके लिये माँ के प्यार की कुर्बानी कर सकता हूँ।उस दुर्बुध्दि ने ऐसा ही किया माँ को मार कर उसका कलेजा निकाला। जब वह माँ का कलेजा लेकर जा रहा था तो रास्ते में उसे ठोकर लगी वही भी गिर पड़ा और माँ का कलेजा भी ज़मीन पर गिर पड़ा। तो कहते हैं कि उस माँ के कलेजे से आवाज़ आई कि बेटा कहीं चोट तो नहीं लगी? बच्चा कुसंगति में पड़कर कुमार्ग पर जा रहा है माँ को मारकर। तो भी मां का हृदय कहता है बेटा कहीं चोट तो नहीं लगी? ये है माँ का प्यार।इसलिये कहा है कि पिता स्यों माता सौ गुणा सुत स्यों राखत प्यार।

   माता स्यों हरि सौ गुणा।परमात्मा का अपनी जीव सृष्टि से प्रेम होता है। वह कैसे?हम नित्य प्रति श्री आरती पूजा में गाते हैं किः-हरि किरपा कर जन्म दियो जग मात पिता द्वारे।उनसे अधिक गुरुजी हैं जो भवनिधि से तारें।सबसे पहले ईश्वर ने अपनी कृपा करके हमें माता पिता के घर जन्म दिया। ये जीवन प्रदान किया फिर हमें जीवित रखने के लिये आक्सीजन, जल,तरह तरह की वनस्पतियां खाने पीने के लिये।और सूर्य चाँद सितारे।ये सब इतनी मात्रा में दिये कि इन वस्तुओं से पूरा ब्रह्माण्ड भरपूर कर दिया है।अगर जीव को एक दो मिनट के लिये भी आक्सीजन न मिले तो उसका जीवित रहना कठिन है। कुछ घन्टों तक अगर पानी पीने को न मिले तो जीवित रहना असम्भव है। नगरों में देखते हैं कि जब अधिक जनसंख्या के कारण या पानी का उचित प्रबन्ध न होने के कारण पानी की व्यवस्था लड़खड़ा जाती है कितनी कठिनाई से पानी उपलब्ध हो पाता है उस समय ही पानी की कीमत का पता चलता है। परमात्मा ने हमारे लिये कितनी नदियाँ बनाई,समुन्द्र बनाये,झरने बनाये,बादल बना कर जगह जगह पर पानी बरसाकर सबको शीतल कर देता है ये उस की कितनी अपार कृपा और प्यार है।शरीर का तापक्रम सही बनाये रखने के लिये चाँद और सूर्य बनाये हैं इन में सेअगर एक भी न रहे तो प्राणी जीवित नहीं रह सकते।सूर्य अगर केवल आठ मिनट के लिये ठन्डा हो जाये तो विश्व का एक भी प्राणी जीवित नहीं रह सकता।ये परमात्मा का प्यार ह म पर असीम प्यार है।वह अपने जीवों से संसार के सभी प्राणीयों से अथाह प्रेम करता है वह जीव के हमेशा ही संग साथ भी रहता है उसकी हर माँग को पूरा करता है।गुरवाणी का वाक है।

     बहुता करम लिखया न जाई।

     वडा दाता दिल न तमाई॥

सतपुरुष श्री गुरुनानकदेव जी महाराज फरमाते हैं कि उस परमात्मा की हम पर इतनी कृपा है इतना करम है उसका हम पर इतना प्यार है कि लिखने में नहीं आ सकता उस की महान कृपा का और प्यार का वर्णन नहीं हो सकता। वडा दाता। वह सबसे बड़ा दाता है सबको दिये जाता है। हज़ारों लाखों हाथों से। युगों युगान्तरों से दिये चला आ रहा है। दाता एक भिखारी सारी दुनियाँ।सबको देता है लेकिन बदले में कुछ भी पाने की तिल मात्र भी आकांक्षा नहीं तमन्ना नहीं। वडा दाता तिल न तमाई। माता पिता को तो हो सकता है उनके हृदय के किसी कोने में अपने पुत्र से कुछ पाने की कामना हो उनके हृदय में ये विचार आ सकता है ये आकांक्षा हो सकती है कि पुत्र हमारे बुढ़ापे की लाठी बनेगा।हमारी सेवा करेगा, हमारा नाम रोशन करेगा या हमारा वंश चलेगा। लेकिन परमात्मा को बदले में किसी भी वस्तु की तमन्ना नहीं होती वह देता है हमसे कुछ पाना नहीं चाहता हमारे पास है भी क्या उसे देने के लिये उसका दान बेशर्त है निःस्वार्थ है। वह हज़ारों लाखों हाथों से देता है लेने वाले हमारे केवल दो ही हाथ हैं।

     बाबा फरीद की माँ ने कहा बेटा घर में शक्कर नहीं है। बाज़ार से शक्कर ले आ।बाबा फरीद जी ने पूछा,माँ कितनी शक्कर ले आऊँ?माँ ने कहा, एक पाव ही काफी है एक पाव शक्कर ले आ। बाबा फरीद परमात्मा के ध्यान में ऐसे बैठे कि शक्कर लाना ही भूल गये और सारी रात बैठे ही रह गये। माँ ने भी उन्हें ध्यान से उठाना उचित न समझा और दरवाज़ा बन्द करके सो गई।फरीद जी सारी रात बैठे रहे सुबह हुई माँ ने दरवाज़ा खोलना चाहा दरवाज़ा खुले ही नहीं। दरवाज़ा बाहर की तरफ खुलता था। बाहर ऑंगन शक्कर से भरा पड़ा था और शक्कर दरवाज़े की झीरी में से कमरे में आने लगी थी। कठिनता से दरवाज़ा खोला। माँ ने देखा ऑंगन सारा ही शक्कर से भरा पड़ा है। बाबा फरीद जी समाधी से उठे तो माँ ने कहा मैने तो एक पाव शक्कर लाने को कहा ता इतनी सारी शक्कर क्या करनी थी। बाबा फरीद जी ने जवाब दिया माँ मैने तो अल्लाह से, परमात्मा से पाव के लिये ही कहा था लेकिन मैं क्या करूँ भगवान का पाव ही बहुत बड़ा है। उसने तो अपने हिसाब से पाव ही दी होगी।परमात्मा का हम जीवों के साथ इतना प्यार है वह हमारी हर माँग को पूरा करता है इसलिये ये कहा है कि    माता से हरि सौ गुणा। आगे वर्णन करते हैं हरि से गुरु सौ बार। ईश्वर के प्यार से सतगुरु का प्रेम अपने शिष्य से,प्रिय सेवक से,सौ गुणा अधिक होता है। सतगुरु का शिष्य से आत्मिक नाता है। सतगुरु शिष्य का आत्मिक पिता भी है माता भी है स्वयं ईश्वर भी और सतगुरु भी।सतगुरु में चारों रूप समाये हुये हैं।मात पिता सतगुरु मेरे शरण गहूं किसकी।गुरू बिन और न दूसरा आस करूँ जिसकी।सतगुरु पिता की तरह पालक और माता की तरह शिष्य की हर गल्तियों को नज़र अन्दाज़ करता है।इसलिये उन्हें सबसे अधिक प्रेम करने वाला कहा गया है। सतगुरु करूणा और प्रेम का स्वरूप हैं। सतगुरु को ईश्वर से सौ गुणा अधिक प्यार करने वाला इसलिये कहा है ईश्वर ने जीव की हर इच्छा को पूरा करना है चाहे वह उचित है या अनुचित। जीव की इच्छा चाहे माया की दलदल में फँसाने वाली है चाहे चौरासी में ले जाने वाली है या उसे नरक में ले जाने वाली है या उसे स्वर्ग तक पहुँचाने वाली है उसे ईश्वर ने पूरा करना है उसे आप की अच्छी या बुरी माँग से कोई सरोकार नहीं।जो माँगोगे मिलेगा क्योंकि वह हमारी स्वतन्त्रता में रूकावट नहीं डालता भले ही जीव कितना दुःखी औरअशान्त हो लेकिन सतगुरु का हृदय मक्खन से कोमल होता है।श्रीरामायण में वर्णन हैः-      सन्त हृदय नवनीत समाना। कहा कविन्ह पर कहई न जाना।

         निज  प्रताप  द्रवहिं नवनीता।परहित द्रव्ंहि सो सन्त पुनीता॥

सतगुरु का हृदय मक्खन से भी कोमल होता है। मक्खन तो जब स्वयं को

सेक(गर्मी) पहुँचता है तो वह पिघलता है। लेकिन सन्तों का हृदय दूसरों के दुःख को देखकर  पिघल जाता है।

    एक बार का ज़िक्र है कि अमरीका के राष्ट्रपति अब्राहीम लिंकन साधु प्रवृति के सज्जन पुरुष थे। एक बार वे भाषण देने के लिये जा रहे थे। कि रास्ते में उन्होंने अचानक देखा कि एक सुअर दलदल में फँसा हुआ दुःखी हो रहा है जितना वह अपने आप को निकालने का प्रयत्न करता वो उतना ही और दलदल में फँसता जा रहा था।उसे देखकरअब्राहीमलिंकन ने अपनी कार रुकवाई और स्वयं उस सुअर को निकालने का प्रयत्न करनेलगे।अन्त में कुछ देर पश्चात परिश्रम से उसे दलदल से निकालने में सफल हो गये लेकिन उन्हें जहाँ भाषण देने जाना था वहाँ पहुँचने में देरी हो गई औरउनके कपड़े भी कुछ कीचड़ से खराब हो चुके थे।वह इसीअवस्था में स्टेज़ पर पहुँचे तो एनाउन्सर ने उनके पी.ए.से देरी सेआने का कारण पूछा तो उन्होने सुअर को दलदल से निकालने वाली सारी वार्ता बता दी। एनाउन्सर ने जनता को राष्ट्रपति के देर से आने का कारण बताया और राष्ट्रपति की तारीफ की कि हमारे राष्ट्रपति की आम जीवों पर भी कितनी दयालुता है। जब राष्ट्रपति महोदय भाषण देने लगे तो उन्होने कहा इन्होने जो मेरीतारीफ की है ये इनकी अपनी भावना है लेकिन मैंने कोई तारीफ का कार्य नहीं किया है आप कहेंगे कि किसी को दुःख से छुटकारा दिलाना उसे सुख पहुँचाना एक महान कार्य है तारीफ के योग्य है।लेकिन नहीं इसे आप समझें जब मैने सुअर को दलदल में फँसते देखा तो उसे देखकर मुझे दुःख हुआ जब मैंने उसे दलदल से निकाल दिया तो मेरा दुःख दूर हो गया।मैंने अपना ही दुःख दूर किया है। ये है सन्त हृदय नवनीत समाना। दूसरे के दुःख को देखकर पिघल जाना।

    सन्त सतगुरु जीव को जब माया की दलदल में फँसा हुआ देखते हैं चौरासी के आवागमन के चक्र में पड़े हुये जीवों को दुःखी देखकर उनका हृदय पसीज उठता है तब वे अपना अनामी लोक छोड़कर सतगुरु बनकर इस धराधाम पर अवतरित होते हैं और अपनी रूहों को संसार रूपी समुन्द्र से यानि भवसागर से उबारकर वापिस अपने सुख के धाम को ले जाते हैं। सतगुरु अपनी रूहों को चौरासी में भटकते नहीं देख सकते।जीवों की कोई अनुचित इच्छा को पूरा नहीं होने देते जो कि चौरासी में ले जाने वाली हो कष्टकारी हो।सन्त सहजो बाई जी ने कहा है किः-

  राम तजूँ पै गुरु न विसारूँ। गुरु के सम हरि को न निहारूँ।

  हरि ने जन्म दियो जग माहिं। गुरु ने आवागमन छुटाहिं॥

  हरि ने पाँच चोर दिये साथा। गुरु ने लियो छुटाये अनाथा॥

  हरि ने कुटम्ब जाल मे गेरी। गुरु ने काटी ममता बेरी॥

  हरि ने रोग भोग उरझायो। गुर जोगी कर सभे छुटायो॥

  हरि ने करम भरम भरमायो। गुरु ने आत्म रूप लखाये।

  हरि ने मौ सूँ आप छुपायो। गुरु दीपक दे आप लखायो॥

सन्त सहजो बाई जी ने यहां तक कह दिया है कि हरिऔर गुरु मे से किसी एकको चुनना हो तो हरि को तज दूँगी लेकिन सतगुरु को नहींभूल सकती। क्योंकि हरि ने संसार में जनम देकर आवागमन के चक्र में डाला है।लेकिन सतगुरु नेअपनी कृपा करके मुझेआवागमन के चक्र से छुटकारा दिला दिया है। हरि ने करम भरम और कुटम्ब परिवार के जाल में जाने दिया है जाने से नहीं रोका ब्लकि कुटुम्ब जाल में डाल दिया लेकिन सतगुरु ने मेरी मोह ममता की बेड़ी हथकड़ियां बन्धन सब तोड़ दिये। सन्त धनी धर्मदास जी सतगुरु की हरि से श्रेष्ठता और महिमा का वर्णन करते हुये फरमाते हैं।

       गुरु से श्रेष्ठ और जग माहि। हरि विरंची शंकर कोई नाहीं।

सुहृद बन्धु सुत पितु महतारी। गुरु सम को दूजा हितकारी॥

       जाके रक्षक गुरु धनी सके कहा करि और।

       हरि रूठे गुरु शरण है गुरु रूठे नहीं ठौर॥

फरमाते है कि गुरु से श्रेष्ठ जग में कोई नहीं, ब्रह्मा विष्णु महेश कोई नहीं संसार के मित्र बन्धु पिता माता सतगुरु के समान कोई भी हितकारी नहीं। ब्रह्मा,विष्णु,महेष,माता पिता,हरि,जीव से प्रीति रखते हैं हितकारी हैं लेकिन सतगुरु के समान हितकारी नहीं है। हरि रूठे गुरु शरण है।अगर हरि ईश्वर किसी कारणवश या जीव की किसी भूल,गल्ती,अपराध से रूठ भी जायें तो भी चिन्ता की बात नहीं सतगुरु अपनी शरण में ले लेते हैं।

    रामायण में एक प्रसंग मिलता है काकभुशुण्डि जी गरूड़ जी को अपने पिछले जन्म की कथा सुनाते हैं कि ऐ गरूड़ जी कलयुग में मैं अयोध्या में वास करता था एक बार भारी अकाल पड़ा तो मैं दुःखी होकर अयोध्या छोड़कर परदेस के चला गया। उज्जैन में जाकर रहने लगा कुछ दिन वहां रहकर मैने थोड़ी सी सम्पत्ति पाई जिससे मेरा निर्वाह होने लगा। उज्जैन में रहते हुये मैं नित्य प्रति शिवजी के मन्दिर में जाकर शिवजी की पूजा करने लगा। वहां पर मुझे एक महान उत्तम ब्राह्मण अर्थात ब्रह्म के जानने वाले तत्तवेता महापुरुष के दर्शन हुये।वे महापुरुष परमसाधूऔर परमार्थ के ज्ञाता थे।उन्होनें मुझे शिवजी का मन्त्र दिया। शिवनेत्र खोलने की दीक्षा दी और उसके अभ्यास की युक्ति बताई मैं उस अभ्यास को तो करने लगा परन्तु गुरु का सेवन सच्चाई से नहीं कपट से करता था।किन्तु मेरे गुरुदेव अति दयालु और नीति निधान थे। वे मुझको बाहर से नम्र देखकर पुत्र की न्याईं पढ़ाते और प्यार करते थे। हे गरूड़ जी मैं गुरु के बताये हुये मन्त्र को शिव मन्दिर में बैठकर जपता था परन्तु हृदय में बड़ा पाखण्डऔर अहंकार रहता था मेरी बुध्दि ऐसी मलिन थी कि ब्राह्मण और हरि भक्तों को देखकर जलता था। मैं शिवजी महाराज का तो भक्त बना हुआ था परन्तु विष्णु भगवान का द्रोह और खण्डन करता था। मेरे इस प्रकार के दुखितआचरण को देख गुरु नित ही समझाते थे मेरी बुध्दि इतनी मलिन थी कि इनका उपदेश सुनकर मुझे क्रोध उत्पन्न होता था।एक बार मुझे गुरु ने बुलाया पास बुलाकर नीति समझाई और कहा कि हे पुत्र शिवजी की उपासना का ये फल है कि श्री भगवान के चरणों में अचल भक्ति हो। तुम नहीं जानते कि श्री राम जी को तो शिव और ब्रह्मा भी भजते हैं।साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या है। जिनके चरणों में शिवजी और ब्रह्मा भी प्रेम करते हैं ऐ अभागे उनसे द्रोह करके तू सुख चाहता है। ऐ गरूड़ जी जब गुरु जी ने शिवजी को भगवान का सेवक कहा तो सुनते ही मेरा हृदय जल उठा और जैसे साँप को दूध पिलाने से तथा प्यार करने से वह डंक ही मारता है ऐसे ही मैं भी नीच जाति खोटे भाग्यों वाला अभिमानी गुरु के साथ द्रोह करने लगा।किन्तु गुरु महाराज अति दयालु ते वे फिर भी उत्तम ज्ञान का उपदेश ही देते रहते थे मेरे हित की कहते थे। मुझे उनकी बात अच्छी नहीं लगती थी। एक बार मैं शिव मन्दिर में बैठकर शिवजी की उपासना कर रहा था उसीअवसर में गुरु महाराज आये किन्तु मैने अभिमान वश उठकर उनको प्रणाम नहीं किया विचार यह था कि इससमय तो मैं शिवजी के मन्दिर में बैठकर शिवजी का तप कर रहा हूँ।इस समय गुरु को प्रणाम करने की क्या आवश्यकता है।

    गुरु दयालू नहीं कहेऊ कछु उर न रोष लवलेश।

    अति अघ गुरु अपमानता सहि नहिं सकेउ महेश॥

गुरुमहाराज तो बड़े दयालु थे उन्होने तो कुछ न कहा और नाहीं उनके हृदय में क्रोध आया। परन्तु हे गरुड़ जी निरादर करना तो महाघोर पाप है।उसको शिवजी महाराज सहन न कर सके।क्रोध से भरी हुई मन्दिर सेआकाशवाणी उतरी अरे नीच अभिमानी हतभाग्य। यद्यपि तेरे गुरु को कुछ भी क्रोध नहीं उपजा क्योंकि ये दयामय सन्त हैं और पूर्ण ज्ञानी हैं। मूर्ख मैं तुझे शाप देता हूँ। क्योकि नीति के विरुध्द चलने वाला मुझे अच्छा नहीं लगता। तुझे मैं दण्ड नहीं दूँगा तो मेरी नीति का मार्ग भ्रष्ट हो जायेगा। गुरु का अपमान करना वेद शास्त्रों की निति के विरूध्द है तू गुरु को आते देख कर अजगर

की भांति जमकर बैठा रहा इस कारण मेरा शाप है तू अजगर हो जा। तू सर्पयोनि की महान नीच गति को पाकर किसी बड़े पुराने पेड़ की जड़ के नीचे भयानकअन्धेरी खोड़ में जाकर निवास कर। इस प्रसंग में विचारने योग्य बात ये है कि जिस देवता कीआराधना गुरु को पीठ देकर कर रहे थे वही देव उनके विरुध्द हो गया।शाप दे डाला।शिवजी का कठिन शाप सुनते ही मेरे गुरु महाहराज सहन न कर सके और मुझे काँपता हुआ देखकर बहुत दया आई।

               हाहाकार कीन्ह गुरु सुनि दारूण शिव शाप।

               कम्पित महि विलोक अति उर उपजा परिताप॥

शिवजी का शाप सुनकर मन में अति दुखित होकर गुरुमहाराज जी ने भगवान शिव से प्रार्थना की कि हे देवों के देव कलयुग के जीव मन माया के अधीन सदा भूलते हैं इन पर दया होनी चाहिये और भूल चूक को क्षमा कर देना चाहिये साथ ही साथ उनकी स्तुति की।तब मन्दिर सेआवाज़ आई। ऐ परोपकारी महात्मन यद्यपिआपके शिष्य ने दारूण पाप किया है मैने क्रोध में शाप दिया है। फिर आपके दयामय परोपकारी साधू स्वभाव को देखकर इस पर विशेष कृपा करता हूँ मेरा शाप व्यर्थ तो नहीं जा सकता हज़ार जन्म तो यह अवश्य पायेगा किन्तु जन्मते मरते समय जो जीव को दुःख होता है वह इसको किंचित मात्र भी न व्यापेगा । जिस जन्म में यह जायेगा उसमें इसका ज्ञान नहीं मिटेगा सारे जन्मों की सुधि रहेगी और अन्त में इसे भगवान की भक्ति प्राप्त होगी। भगवान ने तो काकभुशुण्डि के अपराध के कारण नीच योनि में जाने का शाप दे डाला लेकिन सतगुरु के हृदय ने उसे गँवारा न किया उनकी कृपा से ही उसके जन्म मरण कट गये और प्रभु भक्ति की भी प्राप्ति हुई। इसलिये कहा है हरि से गुरु सौ बार।

      संसार में अगर किसी का रूमाल गिर जाता है तो कोई उसे उठाकर दे देता  है तो उसे धन्यवाद देता है उसका शुक्रियाअदा करता है।जिस माता पिता ने हम पर अपना स्नेह प्यार लुटाया हो अपने तन पर दुःख सह कर हमें सुख पहुँचाया हो हमारा पालन पोषण किया और भगवान के हम पर असीम उपकार और प्यार है हमारी हर माँग को उसने हज़ारों हाथों से पूरा किया और सतगुरु के अनन्त उपकार जो हम पर हैं जिसका बदला हम जन्म जन्मान्तरों तक भी नहीं चुका सकते। हमारा परम कर्तव्य हो जाता है। अपने माता पिता की आज्ञा का पालन करें उनकी सेवा करें। भगवान को नित्य प्रति भजन की व नाम की भेंट अर्पित करें। और सतगुरु के बताये निर्देशों आदेशों तथा श्री आज्ञा और मौज में चलकर उनकी प्रसन्नता हासिल करें इसमें प्रसन्नता महापुरुषों को होती है हमारा कल्याण होता है॥

 
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    July 2009

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